आओ थेरियों - 1 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आओ थेरियों - 1

आओ थेरियों

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

मनू मैं अक्सर खुद से पूछती हूं कि सारे तूफ़ान वाया पश्चिम से ही हमारे यहां क्यों आते हैं, कोई तूफ़ान यहीं से क्यों नहीं उठता। सोचने पर पाती हूं कि गुलामी की जंजीरें जरूर सात दशक पहले ही टूट गईं, लेकिन मैं मानती हूं कि मानसिक गुलामी से मुक्ति सच में अब भी बाकी है। यही कारण है कि जब किसी चीज पर विदेशी ठप्पा लग जाता है तभी हम उसे मानते-समझते हैं। उस पर ध्यान देते हैं। ‘हैशटैग मी-टू’ का तूफ़ान भी भारत में तब असर दिखा रहा है जब पश्चिम में यह बहुत पहले से ही अपनी चपेट में बड़ों-बड़ों को समेट चुका है। अभी जल्दी ही एक बहुत बड़ा अमरीकी सैन्य अधिकारी इसकी चपेट में आ गया। जब वहां की पहली फाइटर प्लेन पायलट ने एक समिति के सामने अपने यौन शोषण का राज खोल दिया कि शुरुआती दिनों में उस अधिकारी ने बर्बरतापूर्वक उसका शोषण किया था।

अपने यहां की बात करें तो अंग्रेजीदां लोगों या मानसिकता वाले या ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि मैकाले के मानस पुत्रों के बीच भले ही ‘हैशटैग मी-टू’ स्टॉर्म कहा जा रहा हो, लेकिन सच यह है कि हिंदी जगत या ऐसे कहें कि गैर अंग्रेजीदां जगत में यानी हिन्दुस्तान में तथाकथित स्टॅार्म अभी दरवाजे के आस-पास भी नहीं पहुंचा है। मैं जितना जानती हूं उसी आधार पर कह रही हूं कि इस तथाकथित स्टॉर्म की गैर अंग्रेजीदां जगत में अभी आहट भी नहीं सुनाई दे रही है। इसकी हवाएं अभी तूफ़ानी रूप लेने लायक ऊर्जा ग्रहण ही नहीं कर पाई हैं। मुझे लगता है कि अंग्रेजीदां जगत में भी यह स्टॉर्म क्षणिक समय के लिए ही है।

मनू मौसम वैज्ञानिकों की तरह मैं भी इस स्टॉर्म की हवाओं का रळख पढ़ने की कोशिश बराबर कर रही हूं। मेरा आकलन यही कहता है कि जब हम ‘मी-टू’ का भारतीय संस्करण सामने लाएंगे तभी सही मायने में यह अपने देश में प्रचंड तूफ़ान बनेगा। और यह भी साफ कह दूं कि गैर अंग्रेजीदां दुनिया में ही बनेगा। हवाओं का रुख बता रहा है कि जब प्रचंड तूफ़ान बनेगा तो भारत की ‘आधी दुनिया’ की दुनिया ही बदल जाएगी। छोटे गांवों तक में ‘आधी दुनिया’ से मर्दवादी सोच, व्यवस्था, तौर-तरीके दूर भागेंगे। पूरे समाज में एक ऐसे बदलाव का युग शुरू होगा जिसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति का खोया वह युग वापस आएगा, जब शासन-प्रशासन, अध्ययन-अध्यापन से लेकर कला-संस्कृति, घर के आखिरी कोने तक में ‘आधी दुनिया’ का बराबर का वर्चस्व था।

मनू हवाओं के रुख पर मेरा आकलन यह भी है कि ऐसा प्रचंड तूफ़ान किसी उच्चवर्गीय महिला या उनके साथ जुड़ती, बढ़ती जा रही महिलाओं के प्रयासों से नहीं आएगा। जिनके लिए एक बड़े लेखक ने लिखा है कि, ‘ये खाई-अघाई आउटडेटेड महिलाओं का फ्रस्ट्रेशन है जो बीस-बीस साल बाद आरोप लगाकर एक बार फिर से लाइमलाइट में आने का भोंडा प्रयास कर रही हैं। यह उनका एक भोथरा प्रयास है। जब उनका यौन शोषण हुआ तब क्या पुलिस, न्यायालय, मीडिया नहीं था।’

लेकिन मनू मैं एक महिला होने के नाते इन बातों को खारिज करती हूं। मैं लेखक महोदय से कहना चाहती हूं कि उच्चवर्गीय जिन भारतीय महिलाओं ने पश्चिम के ‘मी-टू’ स्टॉर्म को भारत में खड़ा करने का प्रयास किया है, इनका जब शोषण हुआ था तब यह सब एक स्ट्रगलर थीं। तब यह ना खाई-अघाई की सीमा में थीं। ना तृप्त-अतृप्त की सीमा में थीं। तब यह सिर्फ़ स्ट्रगलर थीं। अपनी-अपनी फ़ील्ड में कॅरियर बनाने के लिए संघर्षरत थीं। जहां उन्हें हर तरफ मर्दवादी सोच वाली भीड़ से सामना करना पड़ रहा था। ए टू ज़ेड हर जगह इसी भीड़ का कब्जा था। पैर रखने के लिए भी इन महिलाओं को संघर्ष करना पड़ रहा था। आज भी स्थिति कोई बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। बस बदलाव की एक हल्की-हल्की बयार चल रही है।

आज अगर निष्पक्ष आंखों से देखें तो इन महिलाओं ने मर्दवादी सोच वालों की मुट्ठी में जकड़ी अपनी दुनिया छीन कर अपने पैर जमाए और अपनी मंजिल पाई। इस दृष्टि से यह सभी महान विजेताएं हैं। इनका जितना मान-सम्मान हो उतना ही कम है। मैं तो कहूंगी कि अभी सवा सौ करोड़ के देश में कुछ महिलाओं ने ही चंद बातें ही दुनिया के सामने साझा करके अपने देश में स्टॉर्मं पैदा करने का प्रयास किया है। और इतने से ही बड़े-बड़े दिग्गज छिपने के लिए अंधेरा ठिकाना ढूंढ़ रहे हैं, लेकिन उन्हें अपना चेहरा छिपाने लायक एक अंधेरा कोना भी नहीं मिल पा रहा है।

मीडिया के दिग्गजों को भी नहीं। मनू ये आज की दुनिया के वो दिग्गज हैं जो दुनिया के हर क्षेत्र के लोगों की बखिया उधेड़ते रहते हैं। सबके स्याह-सफेद को उजागर करते हैं, लेकिन खुद हर तरह के दल-दल में धंसे रहते हैं। इनके स्याह कारनामों को दुनिया के सामने उजाले में लाने का साहस कोई नहीं करता। मीडिया का एक अदना सा संवाददाता भी खाकी से लेकर सफेद वर्दीधारी नेताओं पर भी रौब झाड़ ले जाता है। ये लोकत्रांतिक युग की दुनिया के वास्तविक हिटलर हैं। ऐसे में संपादक की हैसियत कितनी बड़ी होती है, वह कितना ताकतवर बन जाता है मनू यह बताने की जरूरत नहीं है। ऐसे ही कई पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक, कलम के धनी लेखक संपादक की ताकत का तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता।

ऐसी अकूत ताकत किसी को भी आसानी से लंपट बना सकती है। शक्ति के मद में चूर होकर वह कुछ भी कर सकता है। पिछले दिनों तुमने ऐसे ही एक लंपट के बारे में देखा-सुना होगा मीडिया में। पढ़ा भी होगा। यह उस लंपट की अकूत ताकत ही तो थी कि विदेश राज्य मंत्री बन गया, और भी ताकतवर हो गया। सही मायने में सोने पे सुहागा हुआ। मगर इस ‘मी-टू’ ने ऐसे महाशक्तिशाली आदमी को भी तिनके सा उड़ा दिया। दूर देश के दौरे पर से बीच में ही वापस बुला कर इस्तीफा ले लिया गया। क्योंकि शक्तिशाली सरकार इन चंद औरतों के मुंह खोलने से उत्पन्न हुई स्थिति में प्रचंड तूफ़ान की आहट सुन रही है।

जो किसी झोपड़ी से शुरू होने वाला है। जो किसी झोपड़पट्टी में कहीं गोल-गोल घूम रहा है। जो इतना प्रचंड चक्रवाती तूफ़ान बनने की ऊर्जा स्वयं में समेटे हुए है कि उतनी ऊर्जा आज तक इस पृथ्वी पर आए किसी तूफ़ान में नहीं थी। इन चंद औरतों को खाई-अघाई कह कर उनके काम, साहस, प्रभाव को नकारने की साजिश सफल होने वाली नहीं है। ऐसे साजिशकर्ता भी साजिश करने की सजा भुगतने को तैयार रहें। डरें उस दिन से जिस दिन उनके भी स्याह पन्ने कोई महिला दुनिया के सामने पढ़ देगी। तब वह भी खुद को ना तो अपनी लिखी ढेरों किताबों के पीछे छिपा पाएंगे, ना ही जोड़-तोड़ से बनाए अपने किसी किले में।

मनू सच बताऊं जब यह ‘हैशटैग मी-टू’ पश्चिम से चला तो मैं इसके बारे में जानने के लिए कुछ ज़्यादा उत्सुक नहीं थी। सोचा वहां तो रिच मैन पर ऐसे आरोप लगा कर पैसा वसूलने की एक परंपरा सी चली आ रही है। हालांकि यह आरोप कई बार सही भी निकलते आ रहे हैं। यह ‘मी-टू’ उसी का नया वर्जन होगा। लेकिन जब इसने जोर पकड़ा तो इसे लेकर मेरी उत्सुकता बढ़ी। मोबाइल पर ही न्यूज पढ़ने-देखने की सुविधा के चलते मैं हर समय लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने की आदी हो गई हूं। ढूंढ़-ढूंढ़ कर ‘मी-टू’ से रिलेटेड खबरें पढ़ने-देखने लगी।

हॉस्पिटल में ड्यूटी हॉवर्स में भी मैं यह करती रहती हूं। नर्सिंग स्टाफ की हेड होने के चलते मुझ पर बहुत सी ज़िम्मेदारियां होती हैं। लेकिन मैं अपना काम जूनियर पर डालकर अपने इस एडिक्शन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा समय निकाल ही लेती हूं। जानती हूं कि यह जूनियर का शोषण है। लेकिन जब-तक यह बात मेरे दिमाग में आई तब-तक मैं इसकी आदी हो चुकी थी। मेरा शोषण मेरे सीनियर करते रहे हैं और यह अब भी चल ही रहा है। यही क्रम नीचे तक चलता चला जा रहा है।

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